तन की सरहदों के दायरे में ही एक गांव बसाया था। कोख की
मिट्टी में मासूमियत रोपी थी और सोचा था कि इक रोज़ किलकारियों की फसल
महकेगी। चाहा था कि उन किलकारियों को पिरो कर एक खूबसूरत बन्दनवार तैयार
करूंगी और अांगन के ठीक. सामने वाले दरवाज़े पर टांग दूंगी। उसमें लटकानी
थी मुझे नन्ही नन्हीं लोरियों की घण्टियां कि जिन्हें आते जाते हल्का सा
हिला दूंगी और उन सुरों से भर जाएगा सारा खालीपन।
तुम्हारे गालों के गड्ढे में भर कर मेरी हंसी कैसी लगेगी,
ये भी देखना था। मेरी बेवकूफियों से लिपट कर तुम्हारी समझदारी की बेल कितना
ऊपर जायेगी, ये भी जानना था।
मैंने उस फसल को हर खाद मुहैया कराई थी लेकिन मां के लाख समझाने पर भी नींबू मिरची नहीं टांगा था।
खैर ... ये भी होना था कि मैं ही कब से कहती आ रही थी कि लिखने का कोई बहाना नहीं मिलता।
नन्हीं मासूम मुस्कुराहटों से उठते किसी भंवर में
अपनी तमाम उलझनें फेंक आने के ख्वाब थे
तेरे-मेरे बीच आ कर भी पाट दे हर दूरी
ऐसी कारीगरी के नमूने वाले पुल बनाने के ख्वाब थे
अपनी तमाम उलझनें फेंक आने के ख्वाब थे
तेरे-मेरे बीच आ कर भी पाट दे हर दूरी
ऐसी कारीगरी के नमूने वाले पुल बनाने के ख्वाब थे
खाली सपाट दीवारों पर चस्पा तस्वीरें मज़ा नहीं देतीं
काली पेन्सिलों वाली कलाकारी सजाने के ख्वाब थे
काली पेन्सिलों वाली कलाकारी सजाने के ख्वाब थे
ख्वाब थे ...
छोटे ऊनी मोज़े बुनना सीखने के,
ख्वाब थे ...
अनन्त तक भर कर, निर्वात तक रीतने के
ख्वाब थे ...
दर्द की लहरों भरे दिन, हंसाते हुए बीतने के
ख्वाब थे ...
छोटे ऊनी मोज़े बुनना सीखने के,
ख्वाब थे ...
अनन्त तक भर कर, निर्वात तक रीतने के
ख्वाब थे ...
दर्द की लहरों भरे दिन, हंसाते हुए बीतने के
ख्वाब थे ...
रच कर स्वयम् कुछ, पकृति को जीतने के
लेकिन क्योंकि ख्वाब बस करवट बदलते ही टूट जाते हैं
इसलिये इस बार हकीकतों को पालूंगी।
नहीं फेरूंगी हाथ प्यार से खुद पर,
इस बार तुझे अपनी नज़र से बचा लूंगी
इसलिये इस बार हकीकतों को पालूंगी।
नहीं फेरूंगी हाथ प्यार से खुद पर,
इस बार तुझे अपनी नज़र से बचा लूंगी