Monday, January 27, 2014

तुझसे बंधी... तुझमें बसी...

वो अलसुबह तुम्हारा चेहरा देख कर दिन शुरु करना
सब्जी चलाते हुए, आटा गूंथते हुए...
... एक सरसरी निगाह घडी पर डालते रहना
झुंझलाना इस बात पर कि क्यूं कभी तुम्हें तौलिया नहीं मिलता?
तुम्हारी मंथर गति देख कर बिगडना...
नाश्ता खत्म करने को बहलाना...
बच्चों की तरह खाने का डिब्बा पकडाना और,
मफलर ढंग से लपेटने की ताकीद करना
"सुबह सुबह गोकि मैं तुम्हारी मां हो जाती हूं "


फिर दोपहर भर सोचना ये फिज़ूल सी बातें
लिखना तुम्हें वो बेतुकी चिट्ठियां ...
.. और उन्हें अपने सिरहाने की किताब में सुला देना.
पढना वो ख़त तुम्हारे,
कि जिन पर तहों के निशां तले अल्फाज़ धुंधला से गये हैं
कभी मुस्कुरा देना किसी ख़याल पर
और कभी झूठमूठ ही हो जाना नाराज़ किसी बेतुकी सी बात पर..
"तपती दुपहरों में मेरे अंदर अलसाई पडी,
तुम्हारी प्रेमिका अंगडाईयां लेती है."

शाम में खंगालना साग-भाजी की डलिया
बीनना पसंद तुम्हारी और छौंक देना ठीक वैसे जैसे भाये तुम्हें
एक-एक फूली रोटी तुम्हें खाते हुए तकना
और उन कडी जली चपातियों को अपने लिये रखना
ह्ंसना, ठिठोली करना, छीनना-झपटना, भागना-पकडना...
... तब कि जब दिन तुम्हारा अच्छा ग़ुज़रा हो
या फिर चुपचाप बदलना टी.वी. के चैनल कि तुम पर थकान तारी है.
"दिन ढलते-ढलते जागने लगती है तुम्हारी अर्धांगिनी मुझमें"