Wednesday, April 11, 2012

हुआ है कभी ऐसा.. तुम्हारे साथ???

वो रात-बेरात अपनी अधपकी नींद से एक झटके के साथ उठ कर बैठ जाती और फिर तमाम दराजों को टटोलने लगती. जबकि ये बात उसे भी पता होती कि वो जो ढूंढ रही है उसे अगर दराजों में सहेज कर रखा जा सकता तो खुदा ने इंसान को आंसुओं की नेमत नहीं बख्शी होती और इंसानों ने नींद की दवाओं का आविष्कार नहीं किया होता.

जब मनचाही चीज़ कहीं किसी कोने में नहीं मिलती तो उसे अपने चेहरे पर ढूंढने के लिये वो कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने खडी हो जाती और उस सुकून को खोजने की कोशिश करती जो मां के चेहरे पर बिखरा रहता था लेकिन अपने चेहरे पर उसे अपने पिता से विरासत में मिली कठोरता और व्यावहारिकता के मेल से बनी कोई अजीब-सी चीज़ फैली हुई मिलती.

तब वो खुद से बातें करने लगती.. खुद से भी नहीं, किसी और से जो भले उस कमरे मे मौजूद नहीं था लेकिन लडकी की रग-रग में बडे हक़ के साथ बसा हुआ था. उससे तेज़ आवाज़ में पूछती...



पार की है कभी एक रात से अगली सुबह तक की दूरी खुली आंखों से? वो भी तब जब मालूम हो कि हर दर्द से पनाह बस नींद ही दे सकती है... मगर नींद के आगोश में छुप जाना मुश्किल लगा हो क्योंकि आंखें बंद कर के इस दुनिया से मुंह फेर कर आप एक नई दुनिया ज़िन्दा कर लेते हो... खुद के भीतर.

कभी सोने से डर लगा है कि नींद अब वैसे सपनों का हाथ पकड कर नहीं आती जिनके टूट जाने का अफसोस होता हो?

कभी बांए हाथ के किसी नाखून को दांए कंधे पर ज़ोर से कुछ ऐसे गडाया है कि दर्द की लहर कई देर तक बदन में बहती रहे? फिर उस दर्द को अपने जिस्म की चौकीदारी में छोड कर गये हो कभी तन की सरहदों और मन की हदों के पार?

... और ठीक उन्हीं पलों में खुद से मीलों दूर इत्मिनान से सोते किसी शख्स की आवाज़ सुनने की तलब बही है आंखों की कोर से कान के पास वाले बालों को भिगोती हुई?

यादों के दरवाज़े को ज़ोरों से भडभडा कर गिडगिडाए हो कभी कि बस एक बार वो खुल जाएं और लौट आने दे बिसरी बातों, बिछडे लोगों को वापस तुम्हारे पास?

नहीं... तुमने ऐसा कुछ भी, कभी भी महसूस नहीं किया. वरना उस रोज़ तुम्हारी चौख़ट से वापस लौटते हुये मेरी गीली आंखों ने खिडकी के शीशे के परे तुम्हारी पीठ पर पसरी बेपरवाही को मेरा मज़ाक बना कर हंसते ना देखा होता... तुम्हारी सिगरेट के धुंए मे ही सही, कहीं तो तुम्हारी आंखों की नमी दिखती मुझे...

मेरे दर्द को समझने के लिये तुम्हें दौडना होगा किसी अजनबी के पीछे बेतहाशा, दोनों हाथ हवा में उठाए किसी अपने का नाम पुकारते हुए.. करनी होगी अपनी मनपसंद किताबों से बेपनाह नफरत और... सीखना होगा हुनर चीखों से संगीत निचोडने का...

और शायद तब तुम जान पाओ कि मेरी आवाज़ में जो रिसता था, वो मेरा इश्क़ था.. तुम्हारे लिये. जब दर्द ही दवा सरीखा लगने लगेगा और दुआओं से भरोसा उठ जायेगा तब तुम जान पाओगे की मुहब्बत करना कितना मुश्किल काम है...

जब मेरी ज़िन्दगी के ये सारे दर्द तुम्हारे अंदर ज़िन्दा हो जाएं और कहीं किसी कोशिश, किसी नुस्खे, किसी टोटके से कोई आराम ना मिले तब... तब बस एक बार मुझे दिल से याद करना.. बस एक बार शिद्दत से मेरे नाम को पुकारना. बस उतना भर कर देने से ही मैं तुम्हें अपने सारे खून माफ कर दूंगी. अपने अंदर के 'मैं' की हत्या के इल्ज़ाम से बरी कर दूंगी... बाइज़्ज़त.

और ये सब इस्लिये नहीं कि तुम्हें चाहती हूं, बल्कि इसलिये कि ऐसा ना कर पाने तक मैं खुद भी आज़ाद नहीं हो पाऊंगी.

पता है, हर सांस मरना और हर मौत जीना आसान नहीं है. ये ऐसे है जैसे किरच-किरच दर्द को खरोंच कर खुद से होते हुए बहने का न्यौता देना और फिर ज़ार-ज़ार रोना... जैसे ज़ख्मों को चीखों में तब्दील होते हुये देखना और उन चीखों का वापस जिस्म से टकरा कर ज़ख्मों में बदल जाना... जाने तुम समझ भी रहे हो या नहीं, लेकिन ये सच में उतना ही मुश्किल है जितना तुम्हारा मुझसे मुहब्बत और मेरा तुमसे नफरत करना...

11 comments:

  1. painful............
    impressive writing monali.

    anu

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  2. जाने तुम समझ भी रहे हो या नहीं, लेकिन ये सच में उतना ही मुश्किल है जितना तुम्हारा मुझसे मुहब्बत और मेरा तुमसे नफरत करना......

    .................. :)
    ........................:(

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  3. एक अजीब सी हूक सी उठी ये पोस्ट पढ़ के... पढने के करीब आधे घंटे बाद कमेन्ट करने की हालत में ला पाया खुद को.... कुछ पुरानी बातें याद आ गयीं... पता नहीं क्यूँ कुछ तो कहने को है नहीं लेकिन कमेन्ट तो करना ही था.... ये पोस्ट डिजर्व करती है एक कमेन्ट तो....

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  4. चींखों से संगीत निचोड़ने का हुनर सीखो तब सीखो..आपने वेदना से साहित्य को बखूबी निचोड़ दिया..बधाई !!

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  5. आंतरिक दर्द को बया करती हुई उम्दा पोस्ट ...

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  6. उहापोह...इसके अलावा क्या कहूँ!!!!
    मन भी पता नहीं किस दुनिया में ले जाता है !!!

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  7. जब मेरी ज़िन्दगी के ये सारे दर्द तुम्हारे अंदर ज़िन्दा हो जाएं और कहीं किसी कोशिश, किसी नुस्खे, किसी टोटके से कोई आराम ना मिले तब... तब बस एक बार मुझे दिल से याद करना.. बस एक बार शिद्दत से मेरे नाम को पुकारना. बस उतना भर कर देने से ही मैं तुम्हें अपने सारे खून माफ कर दूंगी. अपने अंदर के 'मैं' की हत्या के इल्ज़ाम से बरी कर दूंगी... बाइज़्ज़त. ...

    उफ़ ... क्या गज़ब का लिखा है ... निःशब्द कर दिया .... किसी दूसरी दुनिया में जाता है शुरुआत से ही ...

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  8. मोनाली जी बहुत ही सुन्दर लिखा जी |

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  9. कभी सोने से डर लगा है...हाँ...और उस पल मन स्वार्थी हो जाता है...लगता है कि कोई चैन से कैसे सो सकता है...
    तुम्हारी भी नींद उड़ जाये मेरी ही तरह तब समझोगे तुम

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