Wednesday, April 25, 2012

तुम्हें सोच कर...



"बुद्धू... गंवार... अनपढ... पागल लडके"
"क्या बात है! आज बहुत प्यार आ रहा है?"
"किसी को बुद्धू, गंवार, अनपढ तब कहते हैं क्या कि जब प्यार आता हो? तुम तो सच में ही पागल हो."
"अरे हां, तभी तो कहते हैं... तुम्हें नहीं पता?"
"नहीं... सब कुछ तुम्हें ही तो पता होता है."
"हां, ये भी है. चलो फिर हम ही बता देते हैं कि ये सब तब कहते हैं जब खूब... खूब...खूब प्यार आ रहा हो लेकिन छुपाना बताने से ज़्यादा आसान लगे."
"और जब कोई किसी को नालायक कहे तब? तब भी क्या सामने वाले पर टूट कर प्यार आ रहा होता है?"
"हां, तब भी... फर्क बस इतना है कि तब आप छुपाना नहीं, जताना चाहते हो"
"ह्म्म्म्..."
"समझीं... नालायक लडकी?"
"...."
"...."
"...."
"क्या हुआ? सच में समझ गईं क्या?"
"तुम्हारी बकवास सुन लें वही क्या कम है जो समझने की भी मेहनत करें?"
"फिर खामोश क्यूं हो गई थीं?"
"तुम्हें ये बताने के लिए कि हम हद वाला पक जाते हैं तुम्हारे फालतू फण्डों से.."
"इतना बुरा लगता हूं?"
"इससे भी ज़्यादा बुरे लगते हो."
"आच्छा???"
"हां... इतने बुरे... इतने बुरे कि अगर सामने होते तो तुम्हारी उंगलियां काट लेते ज़ोरों से"
"उंगलियां?"
"हां... उंगलियां. क्योंकि ये जादू जानती हैं, लिखती हैं तो मन कोरा कागज़ बन जाना चाहता है... छूती हैं तो पत्थर की मूरत..."
"फिर तो इन्हें सच में ही सज़ा मिलनी चाहिये कि ये उसकी जान सोख कर मूरत बना देना चाहती हैं जिसमें मेरी जान बसती है."
"अबे तेरे की!!! डायलॉग!!! "
"शुरु किसने किया था?"
"उसने जिसे शुरुआत से डर नहीं लगता."
"फिर तो वो तुम हरगिज़ नहीं हो सकतीं. तुम्हें तो आगाज़ से बडा डर लगता है."
"तब तक कि जब तक अंजाम के सुखद होने का भरोसा ना हो."
"और अगर मैं कहूं कि कोई मुश्किल तुम्हे छू भी नहीं पायेगी, तो?"
"तो मैं मान जाऊंगी... तुम कितने भी बुरे सही, झूठे नहीं हो."
"और?"
"और... हां!!!"
"उस सवाल के लिए जो आज सुबह मैंने पूछा था?"
"नहीं, उस कुल्फी के लिए जिसके लिए कल ना कह दिया था... ओफ्फो! तुम सच मे ही बुद्धू हो लडके."
"और बुद्धू लडका तुम्हें पा कर बहुत खुश है."
"और???"
"और ... और.. I Love You"
"Oh! say something else boy. I hate predictable people."
"ओके... तुम.. तुम बहुत बडी वाली नालायक हो."
"ह्म्म्म्... अब सुनने में नॉर्मल लग रहा है."

इस बात को बरसों बीत जाने के बाद भी लडकी को लडके की उंगलियां बिल्कुल पसन्द नहीं हैं कि आज भी लडके का लिखा पढ के वो सब भूल कर कोरे यौवन के दिनों में पहुंच जाती है.. आज भी अगर लडका उसे छू भर ले तो पल दो पल को सांस ऐसे थम जाती है जैसे सच ही मूरत बन गई हो...

Wednesday, April 11, 2012

हुआ है कभी ऐसा.. तुम्हारे साथ???

वो रात-बेरात अपनी अधपकी नींद से एक झटके के साथ उठ कर बैठ जाती और फिर तमाम दराजों को टटोलने लगती. जबकि ये बात उसे भी पता होती कि वो जो ढूंढ रही है उसे अगर दराजों में सहेज कर रखा जा सकता तो खुदा ने इंसान को आंसुओं की नेमत नहीं बख्शी होती और इंसानों ने नींद की दवाओं का आविष्कार नहीं किया होता.

जब मनचाही चीज़ कहीं किसी कोने में नहीं मिलती तो उसे अपने चेहरे पर ढूंढने के लिये वो कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने खडी हो जाती और उस सुकून को खोजने की कोशिश करती जो मां के चेहरे पर बिखरा रहता था लेकिन अपने चेहरे पर उसे अपने पिता से विरासत में मिली कठोरता और व्यावहारिकता के मेल से बनी कोई अजीब-सी चीज़ फैली हुई मिलती.

तब वो खुद से बातें करने लगती.. खुद से भी नहीं, किसी और से जो भले उस कमरे मे मौजूद नहीं था लेकिन लडकी की रग-रग में बडे हक़ के साथ बसा हुआ था. उससे तेज़ आवाज़ में पूछती...



पार की है कभी एक रात से अगली सुबह तक की दूरी खुली आंखों से? वो भी तब जब मालूम हो कि हर दर्द से पनाह बस नींद ही दे सकती है... मगर नींद के आगोश में छुप जाना मुश्किल लगा हो क्योंकि आंखें बंद कर के इस दुनिया से मुंह फेर कर आप एक नई दुनिया ज़िन्दा कर लेते हो... खुद के भीतर.

कभी सोने से डर लगा है कि नींद अब वैसे सपनों का हाथ पकड कर नहीं आती जिनके टूट जाने का अफसोस होता हो?

कभी बांए हाथ के किसी नाखून को दांए कंधे पर ज़ोर से कुछ ऐसे गडाया है कि दर्द की लहर कई देर तक बदन में बहती रहे? फिर उस दर्द को अपने जिस्म की चौकीदारी में छोड कर गये हो कभी तन की सरहदों और मन की हदों के पार?

... और ठीक उन्हीं पलों में खुद से मीलों दूर इत्मिनान से सोते किसी शख्स की आवाज़ सुनने की तलब बही है आंखों की कोर से कान के पास वाले बालों को भिगोती हुई?

यादों के दरवाज़े को ज़ोरों से भडभडा कर गिडगिडाए हो कभी कि बस एक बार वो खुल जाएं और लौट आने दे बिसरी बातों, बिछडे लोगों को वापस तुम्हारे पास?

नहीं... तुमने ऐसा कुछ भी, कभी भी महसूस नहीं किया. वरना उस रोज़ तुम्हारी चौख़ट से वापस लौटते हुये मेरी गीली आंखों ने खिडकी के शीशे के परे तुम्हारी पीठ पर पसरी बेपरवाही को मेरा मज़ाक बना कर हंसते ना देखा होता... तुम्हारी सिगरेट के धुंए मे ही सही, कहीं तो तुम्हारी आंखों की नमी दिखती मुझे...

मेरे दर्द को समझने के लिये तुम्हें दौडना होगा किसी अजनबी के पीछे बेतहाशा, दोनों हाथ हवा में उठाए किसी अपने का नाम पुकारते हुए.. करनी होगी अपनी मनपसंद किताबों से बेपनाह नफरत और... सीखना होगा हुनर चीखों से संगीत निचोडने का...

और शायद तब तुम जान पाओ कि मेरी आवाज़ में जो रिसता था, वो मेरा इश्क़ था.. तुम्हारे लिये. जब दर्द ही दवा सरीखा लगने लगेगा और दुआओं से भरोसा उठ जायेगा तब तुम जान पाओगे की मुहब्बत करना कितना मुश्किल काम है...

जब मेरी ज़िन्दगी के ये सारे दर्द तुम्हारे अंदर ज़िन्दा हो जाएं और कहीं किसी कोशिश, किसी नुस्खे, किसी टोटके से कोई आराम ना मिले तब... तब बस एक बार मुझे दिल से याद करना.. बस एक बार शिद्दत से मेरे नाम को पुकारना. बस उतना भर कर देने से ही मैं तुम्हें अपने सारे खून माफ कर दूंगी. अपने अंदर के 'मैं' की हत्या के इल्ज़ाम से बरी कर दूंगी... बाइज़्ज़त.

और ये सब इस्लिये नहीं कि तुम्हें चाहती हूं, बल्कि इसलिये कि ऐसा ना कर पाने तक मैं खुद भी आज़ाद नहीं हो पाऊंगी.

पता है, हर सांस मरना और हर मौत जीना आसान नहीं है. ये ऐसे है जैसे किरच-किरच दर्द को खरोंच कर खुद से होते हुए बहने का न्यौता देना और फिर ज़ार-ज़ार रोना... जैसे ज़ख्मों को चीखों में तब्दील होते हुये देखना और उन चीखों का वापस जिस्म से टकरा कर ज़ख्मों में बदल जाना... जाने तुम समझ भी रहे हो या नहीं, लेकिन ये सच में उतना ही मुश्किल है जितना तुम्हारा मुझसे मुहब्बत और मेरा तुमसे नफरत करना...