अकेले सूने घर में बर्तन धोते-धोते अचानक कटोरी को पटिया पर फेंक कर खडी हो जाती है, सलवार झाडने लगती है. कुछ भी तो नहीं है.. लगा जैसे कुछ रेंग रह हो अंदर. चूहे, छिपकली, कांतर सभी कुछ तो है इस मकान में और परले साल तो एक संपोला भी निकल आया था उपलों वाली कुठरिया में.
"तू कब से डरने लगी?"
"जब से अकेले रहने लगी."
"ह्म्म्म् अब तो रघु भी नहीं है यहां"
"था भी तब भी कहां ही था.. तब भी अकेली ही थी जब पलंग पर उसके पांव दबाते दबाते नींद से जूझती रहती थी."
क्या ऊल-जुलूल सोचे पडी है. अकेले रहते रहते शायद दिमाग कुछ चल गया है वरना कोई यूं खुद से ही बात करता है. ग़र खुद ही जवाब देना हो तो फिर सवाल रहा ही कहां?
लेकिन बात है तो सही.. ये डर सचमुच अकेलेपन से ही उपजा है. अम्मा के घर में तो कभी नहीं लगा डर.. सांप, बिच्छू, छिपकली तो वहां भी थे मगर भरोसा सा था कि कोई बचा लेगा और ना भी बचा पाये तो कितने ही ढेर सारे लोग होंगे जो घेर कर आंसू बहायेंगे.
ये भी कैसा अजीब सा सुकून है कि आपके मर जाने पर कितने लोग रोएंगे जबकि कोई रोए या ना भी रोए, कौन सा कुछ पता चलना है मौत के बाद. लेकिन फिर भी एक सुकून है.. नहीं, सुकून 'था'. अब तो मर जाना भी डरावना लगने लगा है. और बीमार या चोटिल हो जाना.. बेतरह भयानक.
जाने कितने ही दिन बुखार में तपेगी, भूख से आंतें इठीं जाती होंगी मगर खाना पकाने की ताकत नहीं होगी.
कभी आंगन में पैर फिसल जायेगा, मोरी की ईंट माथे में घुस जायेगी..खूब खूब खून बह जायेगा मगर उठ जाने की हिम्मत नही होगी.
और ऐसे ही कभी बुखार में तपते या वहीं मोरी के पास औंधे मुंह पडे मौत आ जाएगी. कौन बैठा है जो किसी को कुछ मालूम होगा? तो क्या चूहे कुतर डालेंगे देह को... कीडे पड जाएंगे? सडांध फैलना शुरू होगी तब कोई दरवाजा तोड कर कहेगा; "ओहो, मर गयी बेचारी. उंहू.. म्युनिसपैलिटी वालों को खबर करो, कैसी सडांध फैल रही है. फूंकने-फांकने का इंतज़ाम करो."
और फिर वो 'कोई' मुंह पर कपडा रखे रखे ही बहर चला जायेगा. तो क्या इतनी लम्बी छ्ब्बीस साला ज़िन्दगी में एक 'कोई' ही जुटा मेरे हिस्से में? मैंने तो भरे-पूरे कुनबे के सपने सजाये थे. दादी सास लाड लडाएगी... सास चिढ कर कम दहेज का ताना देगी, मैं भी शुरु के कुछ साल सुनूंगी फिर उल्टे जवाब देना सीख जाऊंगी. ननद मेरा सामान बांटेगी, मैं बस कुढ कर रह जाऊंगी. देवर ठिठोली करेगा... "अपने भतीजे-भतीजियों को बिगाडे दे रहे हो तुम, लल्ला जी" ऐसा ताना दूंगी मैं. और एक "तू" होगा जो आते-जाते कोई इशारा कर देगा और मैं घूंघट को और आगे खींच कर ओट में ही शर्म से दुहरी हो जाऊंगी.
लेकिन तू तो यूं ही बीच में धोखा दे कर चला गया. क्या इसी दिन को मैं सब आगा-पीछा भूल कर तेरे संग चली आई थी? क्या हक़ था तुझे ऐसे मझधार में मुझे छोड जाने का?
तेरे तो सब कर्मकाण्ड मैंने किसी तरह निबटा डाले लेकिन मेरा अंतिम संस्कार किसके भरोसे छोड कर चल दिया तू? कहते हैं सब सही से ना हो तो आत्मा भटकती है.. जीते जी जो भटक रही हूं, क्या मरने के बाद भी मेरे हिस्से चैन नहीं आना है?
कुछ तो छोड कर जाता मरे. कोई आस, कोई औलाद. हां, जानती हूं कि तेरे जैसे लम्पट और मेरे जैसी कुलच्छिनी का जना सपूत तो ना होना था मगर कोई तो होता जिसे कोसने में उमर तमाम होती रहती.
कोई जमीन-जायदाद.. अपनी नहीं, रेहन-गिरवी रखी छोड जाता जिसे छुडाने के नाम पर मैं किसी रोज़ खुद को बेच डालती. कुल्टा हो जाने का "कोई एक बहाना भर" ही छोड जाता रे!
तू तो बस ख़याल छोड गया है. मैं ख़याली पुलाव पकाती ही चली आयी तेरे संग... तेरा ख़याल ही रखती रही इतने बरस और अब भी क्या ही है हाथ में? अतीत के ख़याल ... भविष्य के ख़याल .. जी पाने के ख़याल .. मर जाने के ख़याल.
ख़याल...ख़याल...ख़याल...फक़त ख़याल...
"तू कब से डरने लगी?"
"जब से अकेले रहने लगी."
"ह्म्म्म् अब तो रघु भी नहीं है यहां"
"था भी तब भी कहां ही था.. तब भी अकेली ही थी जब पलंग पर उसके पांव दबाते दबाते नींद से जूझती रहती थी."
क्या ऊल-जुलूल सोचे पडी है. अकेले रहते रहते शायद दिमाग कुछ चल गया है वरना कोई यूं खुद से ही बात करता है. ग़र खुद ही जवाब देना हो तो फिर सवाल रहा ही कहां?
लेकिन बात है तो सही.. ये डर सचमुच अकेलेपन से ही उपजा है. अम्मा के घर में तो कभी नहीं लगा डर.. सांप, बिच्छू, छिपकली तो वहां भी थे मगर भरोसा सा था कि कोई बचा लेगा और ना भी बचा पाये तो कितने ही ढेर सारे लोग होंगे जो घेर कर आंसू बहायेंगे.
ये भी कैसा अजीब सा सुकून है कि आपके मर जाने पर कितने लोग रोएंगे जबकि कोई रोए या ना भी रोए, कौन सा कुछ पता चलना है मौत के बाद. लेकिन फिर भी एक सुकून है.. नहीं, सुकून 'था'. अब तो मर जाना भी डरावना लगने लगा है. और बीमार या चोटिल हो जाना.. बेतरह भयानक.
जाने कितने ही दिन बुखार में तपेगी, भूख से आंतें इठीं जाती होंगी मगर खाना पकाने की ताकत नहीं होगी.
कभी आंगन में पैर फिसल जायेगा, मोरी की ईंट माथे में घुस जायेगी..खूब खूब खून बह जायेगा मगर उठ जाने की हिम्मत नही होगी.
और ऐसे ही कभी बुखार में तपते या वहीं मोरी के पास औंधे मुंह पडे मौत आ जाएगी. कौन बैठा है जो किसी को कुछ मालूम होगा? तो क्या चूहे कुतर डालेंगे देह को... कीडे पड जाएंगे? सडांध फैलना शुरू होगी तब कोई दरवाजा तोड कर कहेगा; "ओहो, मर गयी बेचारी. उंहू.. म्युनिसपैलिटी वालों को खबर करो, कैसी सडांध फैल रही है. फूंकने-फांकने का इंतज़ाम करो."
और फिर वो 'कोई' मुंह पर कपडा रखे रखे ही बहर चला जायेगा. तो क्या इतनी लम्बी छ्ब्बीस साला ज़िन्दगी में एक 'कोई' ही जुटा मेरे हिस्से में? मैंने तो भरे-पूरे कुनबे के सपने सजाये थे. दादी सास लाड लडाएगी... सास चिढ कर कम दहेज का ताना देगी, मैं भी शुरु के कुछ साल सुनूंगी फिर उल्टे जवाब देना सीख जाऊंगी. ननद मेरा सामान बांटेगी, मैं बस कुढ कर रह जाऊंगी. देवर ठिठोली करेगा... "अपने भतीजे-भतीजियों को बिगाडे दे रहे हो तुम, लल्ला जी" ऐसा ताना दूंगी मैं. और एक "तू" होगा जो आते-जाते कोई इशारा कर देगा और मैं घूंघट को और आगे खींच कर ओट में ही शर्म से दुहरी हो जाऊंगी.
लेकिन तू तो यूं ही बीच में धोखा दे कर चला गया. क्या इसी दिन को मैं सब आगा-पीछा भूल कर तेरे संग चली आई थी? क्या हक़ था तुझे ऐसे मझधार में मुझे छोड जाने का?
तेरे तो सब कर्मकाण्ड मैंने किसी तरह निबटा डाले लेकिन मेरा अंतिम संस्कार किसके भरोसे छोड कर चल दिया तू? कहते हैं सब सही से ना हो तो आत्मा भटकती है.. जीते जी जो भटक रही हूं, क्या मरने के बाद भी मेरे हिस्से चैन नहीं आना है?
कुछ तो छोड कर जाता मरे. कोई आस, कोई औलाद. हां, जानती हूं कि तेरे जैसे लम्पट और मेरे जैसी कुलच्छिनी का जना सपूत तो ना होना था मगर कोई तो होता जिसे कोसने में उमर तमाम होती रहती.
कोई जमीन-जायदाद.. अपनी नहीं, रेहन-गिरवी रखी छोड जाता जिसे छुडाने के नाम पर मैं किसी रोज़ खुद को बेच डालती. कुल्टा हो जाने का "कोई एक बहाना भर" ही छोड जाता रे!
तू तो बस ख़याल छोड गया है. मैं ख़याली पुलाव पकाती ही चली आयी तेरे संग... तेरा ख़याल ही रखती रही इतने बरस और अब भी क्या ही है हाथ में? अतीत के ख़याल ... भविष्य के ख़याल .. जी पाने के ख़याल .. मर जाने के ख़याल.
ख़याल...ख़याल...ख़याल...फक़त ख़याल...