मेरा और उसका आवाज़ भर का रिश्ता था और मैं उसे "आवाज़ों के शहर वाला दोस्त" कहती थी.
उसका और मेरा रिश्ता जिस दुनिया में बनता और पनपता था, वो दुनिया रात के अंधेरों में ही उजली होती थी. रातों.. खासकर सूनी खामोश रातों में ही देखी जा सकती थी. सूरज की किरणें पडते ही वो ख़ाक में तब्दील हो जाती थी या कि मन के घुप्प अंधेरों में छुप जाती थी.
ऐसा नहीं था कि दिन के उजाले में उसके और मेरे बात करने पर कोई बंदिश थी लेकिन जाने क्यूं रौशनी बातों में बनावट के अजीब गंदले रंग भर देती थी. जबकि रात में... अंधेरे में... उन सचों को भी टटोल कर पढा जा सकता था जो ज़ुबान का रास्ता तक नहीं जानते थे.
लेकिन अब वो अंधेरी रातें मेरी उमर के पटल से गायब होने वाली थीं. मुझे इस बात का अहसास था कि मैं उसकी आवाज़ के ठहराव में उसकी सिगरेट के कशों की महक को महसूस नहीं कर पाऊंगी... सन्नाटों में उसकी सांसों से डर कर उससे कुछ बोलने की गुज़ारिश करने की भी ज़रूरत नहीं पडेगी.. उसके शहर की हवा की ठण्डक सिहरन बन कर मेरी आवाज़ को अब फिर नहीं कंपायेगी...
... ऐसी ही कई सच्चाईयां शायद उस पर भी हर रोज़ ज़ाहिर हो रही होंगी लेकिन हम दोनों में से कोई भी बिछडने की बात नहीं कर रहा था. उन दिनों मैं चुप थी... बेहद चुप. कुछ भी कहने-सुनने को जी ना चाहता मगर उसे तो वही करना होता जो मैं ना चाहूं हांलाकि ये भी सच है कि हम दोनों की चाहत का सिरा एक ही जगह खुलता था और वो मुझे मुझसे बस थोडा-सा... ज़रा-सा ही ज़्यादा जानता था.
ख़ैर.. जाने कैसा अजीब सा लगा... जाने क्या तो जल-बुझ सा गया अंदर ही अंदर जब उसने कहा कि;
"अब तुम गायब होने वाली हो"
"मैं शहर बदल रही हूं, मर नहीं रही"
कहने को कह गई मैं मगर जानती थी कि वो लडकी जिसकी रगों उसका इश्क़ बहता है, उस नये शहर की हवा को सांसों में भरते ही मर जायेगी. ओह! उसने क्यूं कहा? क्यूं याद दिलाया कि मैं उससे दूर जाने वाली हूं जबकि ये राज़ आखिर तक मैं खुद से छिपा कर रखना चाहती थी.
उस रोज़ के बाद से मैं हर दिन असम्ंजस के हिंडोले पर पींगे लेती रही कि उससे दूर जाने से पहले ही गायब हो जाना चाहिये जिससे मेरा जाना किसी किस्म का कोई vacuum create ना करे उसकी ज़िन्दगी मे या कि बचे हुये पलों में ज़्यादा से ज़्यादा जी लेना चाहिये.
यूं तो दोनों में से कोई रास्ता मुश्किल नहीं.. मुश्किल है तो बस ये समझ पाना कि किस रास्ते के कांटे उसे खुद से बच कर निकल जाने देंगे... मुश्किल है तो ये समझना कि कौन सा रास्ता किसी रोज़ मेरी वाली सडक को समकोण पर काटेगा और उस चौराहे पर उससे मिल कर उसके तलवों के ज़ख़्मों से रिसते लहू को हल्दी डाल कर थामा जा सकेगा.. अपने दुपट्टे को फाड कर उसकी तकलीफों पर लपेटा जा सकेगा...
उसका और मेरा रिश्ता जिस दुनिया में बनता और पनपता था, वो दुनिया रात के अंधेरों में ही उजली होती थी. रातों.. खासकर सूनी खामोश रातों में ही देखी जा सकती थी. सूरज की किरणें पडते ही वो ख़ाक में तब्दील हो जाती थी या कि मन के घुप्प अंधेरों में छुप जाती थी.
ऐसा नहीं था कि दिन के उजाले में उसके और मेरे बात करने पर कोई बंदिश थी लेकिन जाने क्यूं रौशनी बातों में बनावट के अजीब गंदले रंग भर देती थी. जबकि रात में... अंधेरे में... उन सचों को भी टटोल कर पढा जा सकता था जो ज़ुबान का रास्ता तक नहीं जानते थे.
लेकिन अब वो अंधेरी रातें मेरी उमर के पटल से गायब होने वाली थीं. मुझे इस बात का अहसास था कि मैं उसकी आवाज़ के ठहराव में उसकी सिगरेट के कशों की महक को महसूस नहीं कर पाऊंगी... सन्नाटों में उसकी सांसों से डर कर उससे कुछ बोलने की गुज़ारिश करने की भी ज़रूरत नहीं पडेगी.. उसके शहर की हवा की ठण्डक सिहरन बन कर मेरी आवाज़ को अब फिर नहीं कंपायेगी...
... ऐसी ही कई सच्चाईयां शायद उस पर भी हर रोज़ ज़ाहिर हो रही होंगी लेकिन हम दोनों में से कोई भी बिछडने की बात नहीं कर रहा था. उन दिनों मैं चुप थी... बेहद चुप. कुछ भी कहने-सुनने को जी ना चाहता मगर उसे तो वही करना होता जो मैं ना चाहूं हांलाकि ये भी सच है कि हम दोनों की चाहत का सिरा एक ही जगह खुलता था और वो मुझे मुझसे बस थोडा-सा... ज़रा-सा ही ज़्यादा जानता था.
ख़ैर.. जाने कैसा अजीब सा लगा... जाने क्या तो जल-बुझ सा गया अंदर ही अंदर जब उसने कहा कि;
"अब तुम गायब होने वाली हो"
"मैं शहर बदल रही हूं, मर नहीं रही"
कहने को कह गई मैं मगर जानती थी कि वो लडकी जिसकी रगों उसका इश्क़ बहता है, उस नये शहर की हवा को सांसों में भरते ही मर जायेगी. ओह! उसने क्यूं कहा? क्यूं याद दिलाया कि मैं उससे दूर जाने वाली हूं जबकि ये राज़ आखिर तक मैं खुद से छिपा कर रखना चाहती थी.
उस रोज़ के बाद से मैं हर दिन असम्ंजस के हिंडोले पर पींगे लेती रही कि उससे दूर जाने से पहले ही गायब हो जाना चाहिये जिससे मेरा जाना किसी किस्म का कोई vacuum create ना करे उसकी ज़िन्दगी मे या कि बचे हुये पलों में ज़्यादा से ज़्यादा जी लेना चाहिये.
यूं तो दोनों में से कोई रास्ता मुश्किल नहीं.. मुश्किल है तो बस ये समझ पाना कि किस रास्ते के कांटे उसे खुद से बच कर निकल जाने देंगे... मुश्किल है तो ये समझना कि कौन सा रास्ता किसी रोज़ मेरी वाली सडक को समकोण पर काटेगा और उस चौराहे पर उससे मिल कर उसके तलवों के ज़ख़्मों से रिसते लहू को हल्दी डाल कर थामा जा सकेगा.. अपने दुपट्टे को फाड कर उसकी तकलीफों पर लपेटा जा सकेगा...