Thursday, March 31, 2011

रंग... जो मैंने खो दिये


यूं तो तुमने कई चीज़ें बनायी हैं.. काली-सफेद सी... गहरे हल्के रंगों मे रची बसी. तुमने दिया है जवाब हर सवाल का... रखा है ब्यौरा हर एक हिसाब किताब का. मेरी भी तो ढेर सारी उलझनें बेनक़ाब की थीं. य़ाद है जब मैनें तुमसे कहा था कि रंग तो दिये हैं मगर कैनवास नहीं. इन रंगों से न किसी की तस्वीर सजी है ना तकदीर. मेरे पास पडे ज़ाया हो रहे हैं. और तब तुमने ताक़ीद् भी दी थी कि कुछ कंजूसी के साथ खर्च करना. मगर मैं तो मैं थी... अपनी किस्मत को भी पापा के दिये जेब खर्च की तरह समझ् कर उडाने निकली थी. काश् तुमने कोई सिग्नल दिया होतI कि गलत राह पर चल पडी हूं...

मुझे नफ़रत है उस दिन से जब मेरी उस से मुलाकात हुई थी मगर ये भी सच है कि वो मेरी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत दिन था. वो ज़िन्दगी की तस्वीरों का ख़ाका खींचा करता था मगर तुमने मेरी तरह उसे रंग नहीं दिये थे.

और फिर... मैंने ना उसकी तस्वीरों को बेरंग रहने दिया और ना ही उसकी ज़िन्दगी को बेनूर. तुम्हारी हर ताक़ीद को भुला कर तुम्हारे दिये सभी रंग उसकी तस्वीर में सजा दिये... हमारे बीच 'तू और मैं' के फ़ासले मिटा दिये.

मगर पानी के बुलबुलों से ख्वाब कब तक ज़िन्दा रहते? तुम भी मेरी कमअक्ली को भला क्यूं और कब तक सहते?

तब अचानक एक दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी उम्र भर के रंगों से सजी 'हमारी तस्वीर' के बडे ऊंचे दाम मिले हैं उसे. उसके बाद उसने पलट कर मुझे और मेरी बेरंग ज़िन्दगी को पलट कर नहीं देखा. मैंने ज़रूर चंद दिन आंसू बहाये, मिलने की कोशिशें कीं.. 'काली स्याही' में कुछ ख़त भी लिखे...

सुनती हूं कि आज कल वो एक नयी तस्वीर बना रहा है. किसी और के रंगों से अपनी तक़दीर सजा रहा है.

जहां तक मेरी बात है तो मैं उसे बद्दुआ नहीं दे सकती और मेरि दुआओं की उसे ज़रूरत नहीं. क्योंकि मुझे यकीन है कि उसकी ज़िन्दगी का नूर और रंगीनियां क़ायम रहेंगी.

हर बार कुछ नयी दुआओं से जगमगाती...
हर बार किसी नयी प्रेम दीवानी के रंगों से सजी...