देखती हूं रेल की खिडकी से झांक कर
कहीं धरा उर्वर तो कहीं है बंजर
कहीं झुकी डालियां तो कहीं पतझड
मौसम के हर वार को सह कर खडे हैं पेड अक्खड
कहीं पहाड, कहीं नाले, कहीं नदी
कुछ गांव भरे पूरे, कुछ ऐसे जैसे वीरान सदी
कहीं गूंजते कहकहे दूर तक, कहीं आंसुओं से खुश्क चेहरे पत्थर
देख्ती हूं रेल की खिडकी से झांक कर