Tuesday, November 17, 2009

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वो धार है पानी की
अपनी रौ में बहता हुआ
बेखबर...बेअसर...
मगर...हर जिन्दगी को छूता हुआ...

उसकी शीतल छुअन हर तपन से आजाद करती है...
उसकी कल-कल की आवाज मेरी खामोशी से बात करती है...

कभी लगता है जैसे मैंने अपने प्यार के बांध से उसे रोक लिया है
और कभी...लगता है कि मैं उसके साथ बह रही हूं...
उसकी हर बात अपने होठों से कह रही हूं...

और् सच कहूं तो मैं बह जाना चाहती हूं उसके साथ...
चाहती हूं कि वो थामे मेरा हाथ और कर ले खुद से करीब...

चाहे ये करीबी मुझे डूब के हासिल हो...
भले हो जाएं वापसी के सारे रास्ते बंद मगर वो मेरी मंजिल हो
कि जो...

धार है पानी की
अपनी रौ में बहता हुआ
बेखबर...बेअसर...
मगर...हर जिन्दगी को छूता हुआ...